Tuesday, December 14, 2010

नीरा राडिया - कितना आसान है सरकार और प्रशासन में सेंध लगाना.



नीरा राडिया- जिस महिला को चंद महीने पहले तक कोई जानता नहीं था, वो आज देश-विदेश की सबसे चर्चित महिला बन गई है. नीरा ने अपने दिमाग से ऐसा जाल बुना कि, क्या नेता,क्या उद्योगपति और क्या पत्रकार सबको उसकी बात माननी पड़ी और उसके अनुसार काम करने को मजबूर हो गए. नीरा की  सफलता की  कहानी जितनी सच है उतनी ही सच है सरकार और प्रशासन में सेंध लगाना. इसपर सोचने-विचारने की जरुरत है कि कोई कितनी आसानी से सेंध लगाकर अपना काम निकल सकता है. देश में भ्रष्ट्राचार ने किस  कदर अपनी पैठ बनाई है उसका जीता जागता सबूत नीरा है. कोई लोबिंग करके इतना सफल हो सकता है यह देश-विदेश के तमाम लोबिस्तो के लिए शोध का विषय है. अभी तक जो तथ्य नीरा के बारे में सामने आये है वह दांतों तले उंगलिया दबाने के लिए काफी है. नीरा की काबिलियत एक अलग मामला है लेकिन देश के नेता और नौकरशाह इसके लिए ज्यादा जिम्मेदार है. जरा सी लालच के लिए ये नेता न जाने कहाँ तक जा सकते है. पैसा आज भगवान से भी बढकर हो गया है क्योंकि पैसों के लालच में नेताओ को भगवान का डर भी नहीं रह गया है. घोटालों और गबन की ये कहानी एक दिन में नहीं हुई बल्कि इसके लिए कई लोगों को यूज किया गया.
   
राडिया का कारनामा .
2जी स्‍पेक्‍ट्रम लाइसेंस में हुए कथित घोटाले के सिलसिले में चर्चा में आईं नीरा राडिया लियाजनिंग करने वाली देश की बड़ी हस्तियों में शुमार हैं। उन्‍होंने 1990 में विदेशी कंपनी सिंगापुर एयरलाइंस के भारत में प्रवेश में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। हालांकि बाद में सिंगापुर एयरलाइंस ने भारत में विमान सेवा शुरू नहीं की, लेकिन राडिया तत्कालीन उड्डयन मंत्री अनंत कुमार और टाटा समूह के अध्यक्ष रतन टाटा पर अपना प्रभाव छोड़ने में सफल रहीं। रतन टाटा सिंगापुर एयरलाइंस के भारतीय पार्टनर थे। 

हाल ही में रतन टाटा ने खुलासा किया था कि सिंगापुर एयरलाइंस के साथ मिल कर वह विमानन कंपनी खोलना चाहते थे, लेकिन एक मंत्री ने उनसे 15 करोड़ की रिश्‍वत मांगी थी। उन्‍होंने रिश्‍वत देने से इनकार कर दिया था और एयरलाइन कंपनी खोलने का उनका सपना अधूरा ही रह गया।

राडिया ने व्यावसायिक जगत में 2000 में तब हड़कंप मचाया जब उन्होंने केवल 1 लाख रुपए की पूंजी के साथ खुद की एयरलाइंस कंपनी शुरू करने के लिए लाइसेंस मांगा। हालांकि उनके लाइसेंस का आवेदन निरस्त कर दिया गया।  उस समय नागरिक उड्डयन मंत्री अनंत कुमार थे।   

लेकिन तब तक रतन टाटा राडिया से काफी प्रभावित हो चुके थे। उन्होंने राडिया को टाटा टेलीसर्विसेज से जुड़े मामलों में आ रही अड़चनें सुलझाने की जबाबदारी सौंप दी। इसके बाद (2001 में) वैष्‍णवी कार्पोरेट कम्युनिकेशंस कंपनी बनाई गई। राडिया ने टाटा समूह से नजदीकी का भरपूर लाभ लिया और वे करीब 50 बड़ी कंपनियों को सलाह देने का काम करने लगीं। मुकेश अंबानी ने भी 2008-09 में मीडिया प्रबंधन के लिए राडिया की कंपनी को सलाहकार बनाया।  

इसी बीच राडिया 2जी लाइसेंस आवंटन के लिए सक्रिय हो गईं। इसके बाद उन्होंने दूरसंचार विभाग से जुड़े कई अफसरों से बेहतर संबंध बनाए। बड़ी कंपनियों और सरकार के बीच अहम कड़ी का किरदार निभाने वाली नीरा राडिया ने प्रवर्तन निदेशालय की पूछताछ में माना है कि वह टाटा टेलीसर्विसेज और यूनीटेक वायरलेस के लिए पूर्व दूरसंचार मंत्री ए राजा से लाइजनिंग कर रहीं थीं। उन्हें दो कंपनियों से उन्हें सलाह देने के एवज में 60 करोड़ की रकम मिली थी।

राडिया का कैरियर 2009-10 में चरम पर था। उनकी सभी कंपनियों का सालाना टर्नओवर 100 से 120 करोड़ रुपए के आसपास आंका गया।
राडिया कीनिया में पैदा हुईं और उनके पास ब्रिटेन का पासपोर्ट है।

नाम कमाने के बाद बदनामी 

नीरा राडिया पर यह भी आरोप लगते रहे हैं कि उन्‍होंने ए राजा को दूरसंचार मंत्री बनवाने के लिए काफी पैरवी की थी। इसके लिए उन्‍होंने देश के दो बड़े पत्रकारों की भी मदद लेने की कोशिश की थी। इस संबंध में बातचीत की एक रिकॉर्डिंग भी सार्वजनिक हो चुकी है और इस पर काफी विवाद हो रहा है।

प्रवर्तन निदेशालय ने नीरा राडिया से 2जी स्पेक्ट्रम के मामले में लंबी पूछताछ की। पूछताछ मुख्यतः 2 जी घोटाला, उनके राजा से संबंध और 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में शामिल कंपनियों के राडिया से संबंधों पर ही केंद्रित रही। राडिया की कंपनी वैश्नवी कार्पोरेट कम्युनिकेशंस द्वारा जारी बयान में आरोप लगाया गया कि उनके द्वारा टाटा टेलीसर्विसेज की पैरवी किए जाने के बाद इस कंपनी के साथ सौतेला व्यवहार किया गया। 


क्या था रिपोर्ट में 
सीएजी की रिपोर्ट के अनुसार 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला करीब 1.77 लाख करोड़ रुपये का है। सीएजी ने यह आंकड़ा निकालने के लिए 3जी स्पेक्ट्रम आवंटन और मोबाइल कंपनी एस-टेल के सरकार को दिए प्रस्तावों को आधार बनाया है।

दूरसंचार की रेडियो फ्रिक्वेंसी को सरकार नियंत्रित करती है और अंतरराष्ट्रीय दूरसंचार संघ (आईटीए) से तालमेल बनाकर काम करती है। दुनिया में आई मोबाइल क्रांति के बाद कई कंपनियों ने इस क्षेत्र में प्रवेश किया। सरकार ने हर कंपनी को फ्रिक्वेंसी रेंज यानी स्पेक्ट्रम का आवंटन कर लाइसेंस देने की नीति बनाई। उन्नत तकनीकों के हिसाब से इन्हें पहली जनरेशन(पीढ़ी) यानी 1जी, 2 जी और 3जी का नाम दिया गया। हर नई तकनीक में ज्यादा फ्रिक्वेंसी होती हैं और इसीलिए टेलीकॉम कंपनियां सरकार को भारी रकम देकर फ्रिक्वेंसी स्पेक्ट्रम के लाइसेंस लेती हैं।

सीएजी रिपोर्ट के अनुसार केंद्रीय दूरसंचार मंत्री ए. राजा ने 2008 में नियमों के उल्लंघन करते हुए 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन किया। इसके लिए उनके विभाग ने 2001 में आवंटन के लिए अपनाई गई प्रक्रिया को आधार बनाया, जो काफी पुरानी थी। उन्होंने इसके लिए बिना नीलामी के पहले आओ, पहले पाओ के आधार पर आवंटन किए। इससे 9 कंपनियों को काफी लाभ हुआ। प्रत्येक को केवल 1651 करोड़ रुपयों में स्पेक्ट्रम आवंटित किए गए जबकि हर लाइसेंस की कीमत 7,442 करोड़ रुपयों से 47,912 करोड़ रुपये तक हो सकती थी। 

सीएजी ने 1.77 लाख करोड़ का आंकड़ा निकालने के लिए दो तथ्यों को आधार बनाया। उन्होंने इस साल 3जी आवंटन में मिली कुल रकम और 2007 में एस-टेल कंपनी द्वारा लाइसेंस के लिए सरकार को दिए प्रस्ताव के आधार पर यह नतीजा निकाला। सीएजी के अनुसार 122 लायसेंस के आवंटन में सरकार को जितनी रकम मिली, उससे 1.77 लाख करोड़ रुपए और मिल सकते थे। इसीलिए यह घोटाला 1.77 लाख करोड़ रुपयों का माना गया।

Friday, December 10, 2010

मुन्नी और शीला ने बढ़ाये लड़कियों के सिरदर्द

दबंग में मुन्नी बदनाम क्या हुई  मुन्नी नाम वाली लडकियों का घर से निकलना मुश्किल हो गया. आस-पड़ोस वालों के मुह से इसके बोल निकलने शुरू हो गए. जो मुन्नी कभी गुमनाम हुआ करती थी आज वो बदनाम हो गयी है. मनोरंजन के नाम पर गाने लिखने वालो को इस बात का जरा भी ख्याल नहीं रहता कि इससे किसी को क्या फर्क पड़ेगा.उसे तो बस लिखना था लिख दिया.लेकिन उस गाने ने न सिर्फ गाँव में बल्कि शहर में भी असर दिखाना शुरू कर दिया है. एक शहर कि दो बहनों को इसकी वजह से अपना नाम बदलना पड़  गया. इसी तरह एक लड़की को स्कूल में उनके सहपाठियों ने इतना परेशान किया कि उसे बहुत घातक कदम उठाना पड़ा. मुन्नी का दौर ख़तम हुआ ही नहीं था कि शीला कि जवानी लोगों कि जुबान पर चढ़ गई. शीला कि जवानी गाने ने तो जवा लड़कियां  का रास्ते से गुजरना ही दूभर कर दिया. इस तरह के गानों से वो हर लड़की परेशान है जो समाज में निकल कर किसी न किसी दायित्व को निभा रही है. चाँद पैसो और लोगों को ओछा मजा देने कि लिए गीतकारों ने इस नए  और गंदे फार्मूले को बड़ी तेजी से अपना लिया है. यदि तेजी से बाद रहे इस फार्मूले को कड़े नियम बनाकर नहीं रोके गए तो आने वाले समय में इसके और भी भयंकर परिणाम सामने आयेंगे.लोग अपनी बच्चियों का कितनी बार नाम बदलेंगे जरुरी है कि ऐसी चोजों पर रोक लगाई जाये. 





Tuesday, December 7, 2010

2 जी स्पेक्ट्रम. भ्रष्टाचार की हद पार हो गयी



देश के सबसे बड़े घोटाले ने  भ्रष्टाचार की हद पार कर दी है. इस महा घोटाले ने तो कामनवेल्थ में हुए घोटाले को इतना बौना साबित कर दिया कि कई लोगों के सर चकरा गए. देश में हुए 2जी स्पेक्ट्रम के सस्ते आबंटन से देश को 1.76 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। यह अलॉटमेंट तत्कालीन टेलिकॉम मिनिस्टर ए. राजा के कार्यकाल में हुआ। विपक्ष के लगातार दबाव के बाद ए.राजा ने टेलिकॉम मिनिस्टर के पद से इस्तीफा दे दिया.इसमें आपरेटरों को लाइसेंस देने का प्रावधान किया गया। सरकार को अच्छा पैसा मिला। 2007 में सरकार ने 2जी स्पेक्ट्रम नीलाम करने का फैसला किया। इस नीलामी में सरकार को कुल नौ हजार करोड़ रुपए मिले जबकि सीएजी के अनुमान के अनुसार उसे एक लाख पचासी हजार करोड़ रुपए से अधिक की कमाई होनी चाहिए थी। राजा पर आरोप है कि उन्होंने नीलामी की शर्तो में मनचाहे बदलाव किए। प्रधानमंत्री, कानून मंत्री और वित्त मंत्री की सलाह को अनदेखा किया। उन्होंने ऐसी कंपनियों को कौड़ियों के भाव स्पेक्ट्रम दिया जिनके पास न तो इस क्षेत्र में काम का कोई अनुभव था और न ही जरूरी पूंजी। उन्होंने चंद कंपनियों को फायदा पहंचाने के लिए बनाई और बदली सरकारी नीतियां। लेकिन गठबंधन की राजनीति की दुहाई देते हुए प्रधानमंत्री राजा के खिलाफ विपक्ष, अदालत और सीएजी के आरोप, शिकायतें, टिप्पणियों और रिपोर्टो के बावजूद पूरे तीन साल तक चुप्पी साधे रहे।
क्या है 2 जी?
- सेकंड जनरेशन सेलुलर टेलीकॉम नेटवर्क को 1991 में पहली बार फिनलैंड में लांच किया गया था। यह मोबाइल फोन के पहले से मौजूद नेटवर्क से ज्यादा असरदार तकनीक है। इसमें एसएमएस डाटा सर्विस शुरू की गई।
- राजा ने 2 जी स्पेक्ट्रम के लाइसेंस आवंटन में भारतीय दूरसंचार नियमन प्राधिकरण ट्राई के नियमों की धज्जियां उड़ाईं।
क्या थे नियम
- लाइसेंस की संख्या की बंदिश नहीं
- इकरारनामे में कोई बदलाव नहीं
- प्रक्रिया के समापन तक विलयन और अधिग्रहण नहीं हो सकता
- बाजार भाव से प्रवेश शुल्क
राजा के कानून
- 575 आवेदनों में से 122 को लाइसेंस
- स्वॉन और यूनिटेक के अधिग्रहण को मंजूरी
- इकरारनामे को बदला गया
- 2001 की दरों पर
क्या तरीके अपनाए
- बिल्डर और ऐसी कंपनियों ने लाइसेंस के लिए आवेदन लगाए, जिनका टेलीकॉम क्षेत्र में काम करने का कोई अनुभव नहीं था। रियल स्टेट क्षेत्र की कंपनियों को टेलीकाम लाइसेंस दिया।
- बाहरी निवेशकों को बाहर रखने के लिए अंतिम तिथि को मनमाने ढंग से पहले तय कर दिया गया।
- पहले आओ, पहले पाओ का नियम बना दिया, 575 में से 122 को लाइसेंस दे दिए।
- घोषणा की कि ट्राई की सिफारिशों पर अमल हो रहा है, लेकिन पांच में से चार सिफारिशें बदल दी गईं।
- केबिनेट, टेलीकॉम कमिश्नर और ईजीओएम को दरकिनार किया।
सीएजी रिपोर्ट में
- नुकसान का आंकड़ा 1,76,379 करोड़ रुपए
- लाइसेंस प्रक्रिया में प्रधानमंत्री के दिशा-निर्देशों की अनदेखी
- नीलामी से जुड़ी वित्त मंत्री की जरूरी सिफारिशों को सुना नहीं
- 2 जी स्पेक्ट्रम के आवंटन में टेलीकॉम सचिव के नोट को अनदेखा किया।
- ट्राई के उस पत्र को देखा तक नहीं, जिसमें उसकी सिफारिशों की उपेक्षा नहीं करने को कहा गया।
सात साल पुराने रेट पर स्पेक्ट्रम की बंदरबांट
राजा ने नौ टेलीकॉम कंपनियों को 122 सर्किल में सेवाएं शुरू करने का लाइसेंस दिया। लेकिन प्रक्रिया पर तभी सवाल उठे। आवेदन की अंतिम तारीख एक अक्टूबर घोषित की। बाद में कहा कि स्पेक्ट्रम सीमित होने के कारण 25 सितंबर के बाद मिले आवेदनों पर विचार नहीं होगा। हर कंपनी से 1658 करोड़ रुपए लेकर देश भर में सेवाएं शुरू करने की अनुमति दे दी गई। यह मूल्य सरकार द्वारा 2001 में तय रेट पर लिया गया जबकि 2007 तक टेलीकॉम क्षेत्र कई सौ गुना बढ़ चुका था।
1658 से 10,000 करोड़ बनाए चंद दिनों में
स्वॉन टेलीकॉम को लाइसेंस 1600 करोड़ रुपए में मिला। कुछ दिनों बाद उसने 45 प्रतिशत शेयर सऊदी अरब की इटिसलाट को 4500 करोड़ में बेच दिए। यानी लाइसेंस मिलने के बाद कंपनी का मूल्यांकन 10,000 करोड़ रुपए हो गया। इसी तरह यूनिटेक ने 60 प्रतिशत हिस्सेदारी नार्वे की टेलीनॉर को 6000 करोड़ में बेच दी। तब तक इन दोनों के पास एक भी उपभोक्ता नहीं था। न ही सेवाएं शुरू हुई थीं।

Tuesday, November 30, 2010

घटता मानवीय मूल्य

घटता मानवीय मूल्य


मनुष्य ने विकास के रास्ते पर जितनी तेजी से कदम बढाया उतनी ही तेजी से एक चीज ने अपना मोल खोया है वह है मानवीय मूल्य. आज सिर्फ आदमी के जेब और कुर्सी की क़द्र ही होती है. इनके आगे सब बेकार. समय बदलने के साथ-साथ लोगो की सोच काफी तेजी से बदली है.आज आदमी के पास सब कुछ है लेकिन वह अपनी कीमत खोता जा रहा है.आज किसी भी इंसान की क़द्र करने के पहले उसके कद को देखा जाता है. भले वह व्यक्ति कितना भी गुणवान क्यों न हो यदि उसकी पहुच और पहचान ऊँची नहीं है तो कई लोग चाहकर भी उसकी क़द्र नहीं करते. समाज में तेजी से आ रहे इस बदलाव के कारण संस्कृति पर चोट पहुच रही है. व्यसायिकता और पैसों की अंधी दौड़ में लोग अपनी मर्यादा को भूलते जा रहे है. आज समाज में फ़ैल रहे इस महामारी को रोकने की जरुरत है.लेकिन इसकी सुरुआत करेगा कौन.सब चाहते है कि पडोसी के घर में पहले बगावत हो. अपना घर सुरक्षित हो.आज पुरे देश में हर कोई प्रगति कर रहा है लेकिन आर्थिक प्रगति ने आज जितनी उचाई पर जा पहुची है मानवीय मूल्य उतनी ही तेजी से नीचे गयी है. आगे न जाने क्या होगा?

Sunday, October 17, 2010

कहाँ जा रही है संस्कृति,

दुर्गा विसर्जन में बज रहा  मीना आ गया तेरा दीवाना...
लोग कई सालों से कहते आ रहे हैं कि संस्कृति खत्म हो रही है. लेकिन मुझे ज्यादा बड़ा कारण नजर नहीं आता था. पर नवरात्रि के अंतिम दिन दुर्गा विसर्जन करने जा रही एक टोली में बजते गानों ने मुझे भी यह सोच्जने पर मजबूर कर दिया कि वाकई संस्कृति खत्म हो रही है. मैंने कई सालों से दुर्गा विसर्जन करने वालों की टोली देखी,पर कभी विसर्जन करने वालों को फूहड़ गाने बजाते नहीं देखा था.लेकिन १७ अक्टूबर को विसर्जन में जा रहे लोग जमकर फ़िल्मी गाँनो का मजा ले रहे थे.माता की विदाई में लोग मीना कहाँ है तेरा दीवाना, तेरे मस्त-मस्त दो नैन, नायक नहीं खलनायक हूँ मै, जैसे न जाने कैसे-कैसे गाने बज रहे थे ? मुझे बड़ी तकलीफ हो रही थी सुनकर पर मै कुछ नहीं कर पाया. क्योंकि उस भीड़ में सिर्फ युवा ही नहीं, बल्कि अधेढ़ और बुजुर्ग और महिलाये भी शामिल थे. गणपति विसर्जन की तरह अब कुछ लोग माता की भक्ति को भी मनोरंजन बना रहे है. देखा जाए तो अब लोगों में

दुर्गा और गणेश बैठने की होड़ सी लग गयी है, आज अधिकांश लोग सिर्फ चंदा-चकारी कर उत्सवों को कैश करने में लगे हैं. थोड़ी देर के मनोरंजन के लिए लोगों ने श्रद्दा- भक्ति को मजाक बना लिया है. देवी-देवताओं के देश में भक्ति के नाम पर इस तरह की करतूत निहायत ही शर्मनाक और निंदनीय है. हे भगवान लोगों को सद्बुद्धि देना.

जय माता दी .

Friday, October 15, 2010

laal aatanki

कामनवेल्थ गेम्स

कामनवेल्थ गेम्स

न. देश स्वर्ण रजत कांस्य योग








1 ऑस्ट्रेलिया 74 55 48 177

2 भारत 38 27 36 101

3 इंग्लैंड 37 59 46 142

4 कनाडा 26 17 32 75

5 द.अफ्रीका 12 11 10 33

6 केन्या 12 11 9 32

7 मलेशिया 12 10 13 35

8 सिंगापुर 11 11 9 31

9 नाईजीरिया 11 10 14 35

10 स्कॉटलैंड 9 10 7 26

11 न्यूजीलैंड 6 22 8 36

12 साइप्रस 4 3 5 12

13 नार्दन 3 3 4 10

14 समोआ 3 0 1 4

15 वेल्स 2 7 10 19

16 जमैका 2 4 1 7

17 पाकिस्तान 2 1 2 5

18 यूगांडा 2 0 0 2

19 बहामास 1 1 3 5

20 श्रीलंका 1 1 1 3

21 नारू 1 1 0 2

22 बोत्सवाना 1 0 3 4

23 सेंट-विंसेट 1 0 0 1

24 कैमेन 1 0 0 1

25 त्रिनिदाद 0 4 2 6

26 कैमरून 0 2 4 6

27 घाना 0 1 3 4

28 नामीबिया 0 1 2 3

29 पापुआन्यूगिनी 0 1 0 1

30 टोंगा 0 0 2 2

31 इस्लआफमैन 0 0 2 2

32 सेंट 0 0 1 1

33 बांग्लादेश 0 0 1 1











कामनवेल्थ गेम्स

नत्था आज भी

नत्था आज भी गरीब है


नत्था को नाम तो बहुत मिल गया लेकिन उतना दाम नहीं मिला जितना उसे मिलना चाहिए? छत्तीसगढ़ का नाम देश ही नहीं पूरी दुनिया में फ़ैलाने वाले इस छोटे कद के बड़े कलाकार को सरकार ने भी सम्मान के नाम पर सिर्फ दिया तो एक लाख. महंगाई के इस दौर में एक लाख में क्या होता है. अपना पूरा जीवन कला के लिए समर्पित करने वाले नत्था उर्फ़ ओंकरदास मानिकपुरी के पास रहने के लिए घर तक नहीं है. वह अपनी फिल्म पिपली लाइव के कारण भले ही आस्कर के सपने देख रहा हो पर अपने जीजा के घर में दिन गुजर रहा है. सफलता के बाद उसे जो कुछ थोड़े पैसे मिले उसे वह सहेज कर रख रहा है ताकि उसका उपयोग मुंबई में स्ट्रगल के लिए कर सके ! नत्था की कहानी आज भी फ़िल्मी नहीं रियल है.पिपली लाइव रिलीज़ होने के बाद लोगों ने उसे हाथो-हाथ लिया. उसका सम्मान करने समाज से लेकर तमाम प्रकार के लोगों ने अपना नाम नत्था के नाम के साथ कैश करा लिया लेकिन नत्था के पास आज भी कैश नहीं है. गरीबी में जीने वाला नत्था अभी भी गरीबी की मार झेल रहा है. आमिर से मिलकर वो जरुर कला में आमिर हो गया पर उसके पास अमीरी नहीं आई.कई कलाकार सालों बिताने के बाद एक छोटे अदद रोल के लिए तरस जाते है. लेकिन नत्था किस्मत का धनी होकर भी धन से धनी नहीं हो पाया. नत्था की फिल्म तो सफल हो गयी लेकिन वह तभी सफल होगा जब वह धनी होगा. क्योंकि आज कीमत कला की कम कीमती कलाकार की ज्यादा होती है !

नत्था आज भी गरीब है

नत्था आज भी

गरीब है


नत्था को नाम तो बहुत मिल गया लेकिन उतना दाम नहीं मिला जितना उसे मिलना चाहिए? छत्तीसगढ़ का नाम देश ही नहीं पूरी दुनिया में फ़ैलाने वाले इस छोटे कद के बड़े कलाकार को सरकार ने भी सम्मान के नाम पर सिर्फ दिया तो एक लाख. महंगाई के इस दौर में एक लाख में क्या होता है. अपना पूरा जीवन कला के लिए समर्पित करने वाले नत्था उर्फ़ ओंकरदास मानिकपुरी के पास रहने के लिए घर तक नहीं है. वह अपनी फिल्म पिपली लाइव के कारण भले ही आस्कर के सपने देख रहा हो पर अपने जीजा के घर में दिन गुजर रहा है. सफलता के बाद उसे जो कुछ थोड़े पैसे मिले उसे वह सहेज कर रख रहा है ताकि उसका उपयोग मुंबई में स्ट्रगल के लिए कर सके ! नत्था की कहानी आज भी फ़िल्मी नहीं रियल है.पिपली लाइव रिलीज़ होने के बाद लोगों ने उसे हाथो-हाथ लिया. उसका सम्मान करने समाज से लेकर तमाम प्रकार के लोगों ने अपना नाम नत्था के नाम के साथ कैश करा लिया लेकिन नत्था के पास आज भी कैश नहीं है. गरीबी में जीने वाला नत्था अभी भी गरीबी की मार झेल रहा है. आमिर से मिलकर वो जरुर कला में आमिर हो गया पर उसके पास अमीरी नहीं आई.कई कलाकार सालों बिताने के बाद एक छोटे अदद रोल के लिए तरस जाते है. लेकिन नत्था किस्मत का धनी होकर भी धन से धनी नहीं हो पाया. नत्था की फिल्म तो सफल हो गयी लेकिन वह तभी सफल होगा जब वह धनी होगा. क्योंकि आज कीमत कला की कम कीमती कलाकार की ज्यादा होती है !

Thursday, August 19, 2010

नत्था तो नहीं मरा पर ..

नत्था तो नहीं मरा पर ...
किसानो की पीड़ा पर आधारित फिल्म पिपली लाइव में नत्था भले ही न मरे पर आज देश में ऐसे सैकड़ो किसान है जो अपनी व्यथा और सरकारी अनदेखी के कारण मर रहे है. किसानो की हित की बात करने वाली सरकार में आज किसान ही सबसे ज्यादा प्रतार्डित है. कभी अकाल तो कभी भारी बारिश हर हाल में किसान भुगतना किसान को ही पड़ता है. हर साल किसान मौसम की मार झेलता ही है. इतनी विषम परिस्थितियों में भी किसम अपना हौसला नहीं खोता लेकिन जब सरकारी सहायता उन्हें नहीं मिलती तब वो जरुर विचलित हो जाता है. ऐसी बात नहीं है कि सरकार के पास किसानो के लिए योजना नहीं है या फिर सरकार के पास पैसा नहीं है. सरकार के पास सब कुछ है लेकिन सरकारी तंत्र में कुछ ऐसे दलाल और कामचोर व् बेईमान लोग आ गए है जिसके कारण किसानो को मिलने वाला हक़ उन्हें नहीं मिल पाता. जबकि उनके हित का पैसा वो बड़ी चतुराई से डकार जाता है. छत्तीसगढ़ के सन्दर्भ में देखे तो यहाँ किसान दुसरे कारणों से परेशान है. यहाँ उनके पास जमीन हैं, हल है, बैल है, लेकिन उनके पास कम करने वाले मजदूर नहीं है. जिसके कारण किसानी काम प्रभावित हो रहा है. मजदूर मिल भी रहे है तो उनके भाव इतने बड़े है कि उनका कोई इलाज नहीं है. मजदूर आज इतना भाव ताव इसलिए दिखा रहा है क्योंकि सरकार द्वारा उनको १-२-३ रूपए किलो में चावल दे रहा है. इसलिए अब वो काम नहीं करना चाहते. जब ये योजना चालू हुई है तब से किसानो कि कमर ही टूट गयी है. राज्य सरकार भले ही चावल योजना का पुरे देश में गुणगान करे लेकिन इससे राज्य का भला होने कि बजाय किसानो का बुरा जरुर हो रहा है. हम इसके विरोधी नहीं है कि सरकार गरीबों को चावल न दे जरुर दे लेकिन उन्हें काम के बदले अनाज योजना के रूप में दे ताकि वे मजदूर मेहनत भी करे. इस योजना से मजदूर अब आलसी होते जा रहे है. यही कारण है कि छत्तीसगढ़ के किसान पिछले कुछ सालों से लगातार परेशान हो रहे है और खेती-बाढ़ी के काम में ज्यादा रूचि नहीं ले रहे है. यही कारण है यहाँ तो हर नत्था परेशान है.

Saturday, August 7, 2010

कामन वेल्थ गेम्स

वेल्थ कमाओ हेल्थ बनाओ
कामन वेल्थ गेम्स की तैयारी में लगे नेता, पदाधिकारी और अधिकारी जिसने चाहा उसने गेम्स के नाम पर जितना अति कर सकते थे किया और कर रहे है. इसका खुलासा गेम्स की तारीख नजदीक आते ही होने लगा है. देश में भ्रस्ताचार ने किस कदर अपने नीव जमा ली है वह कामन वेल्थ गेम्स की तैयारी से सामने आने लगा है. जिस खेल  में जरा सी लापरवाही होने से देश की छवी ख़राब हो सकती उसमे उससे जुड़े लोगों ने अपनी अवकात दिखा दी और सरकारी पैसों का जमकर दुरुपयोग हुआ. सबने अपनी-अपनी जेबे गर्म करना सबसे ज्यादा लाभदायक समझा. देश हित को दरकिनार करते हुए सबने जमकर लूटा. वर्तमान में चल रही कारगुजारियों को देखने से पता चलता है कि देश किस रस्ते पर जा रहा है. पैसा आज इज्जत और खुदा से बढकर हो गया है. इस तरह के काम करने वालों ने को यह जरा भी नहीं सोचा कि जब सच सामने आएगा तो देश कि इज्जत पर भी बात आएगी. क्योंकि इस आयोजन में कई देश के प्रतिभागी और दर्शक आने वाले है. उनके सामने देश कि छवी कैसी होगी इसकी इन भ्रस्ताचारियों को कोई मतलब नहीं है. इसके लिए नेताओं को ही जिम्मेदार माना जा सकता है. क्योंकि देश के सारे नियम कायदे इनके ही द्वारा बनाये जाते है जो इतने शिथिल होते है कि वे इसका मनमानी तरीके से इस्तेमाल कर अपना उल्लू सीधा कर लेते है. देश में इस तरह कि अनगिनत घटनाये लगातार होती रहेंगी जब तक कि इस पर रोक लगाने और पैसों का गबन करने वालों तथा भ्रस्ताचारियों को सबक सिखाने के लिए कोई कठोर कानून नहीं बनाया जायेगा? यदि यही हाल रहा तो वह दिन दूर नहीं होगा जब हमारा देश भ्रस्ताचारियों का नंबर वन देश बन जायेगा ? 

Monday, August 2, 2010

फ्रेंडशिप डे

ये कैसा विरोध?
संस्कृति के नाम पर राजधानी रायपुर में बजरंग दल और धर्म सेना के कार्यकर्ताओं  ने फ्रेंडशिप डे पर जिस कदर दिन भर गुंडागर्दी उसकी हर तरफ निंदा हो रही है. एक सभ्य समाज में इस तरह कि करतूत को दंडनीय अपराध मन गया है.लेकिन खुलेआम मजा लेते इन युवकों पर पुलिस भी मेहरबान दिखी. इस तरह कि घटना हमारे समाज के लिए चिंतनीय है क्योंकि  यह हमारे समाज की देन नहीं है. खुलेआम वे तथाकथित कार्यकर्ता जिस तरह युवतियों से अभद्र व्यहार कर रहे थे युवको को लात घूसों से पीट रहे थे इसका हक़ उन्हें किसने दिया? और तो और लाठी लेकर खड़ी पुलिस भी तमाशाई बनी रही. फ्रेंडशिप डे का इन्तेजार कर रहे  संस्कृती के ये रक्षक सुबह से इस ताक में थे कि कब उन्हें कोई जोड़ा दिखे और वो इसका मजा लें. विरोध दर्ज करा रहे युवकों में ऐसे लोगों कि संख्या ज्यादा थी जो खुद छेड़खानी और नशाखोरी कि गिरफ्त में हैं. हुरदंग कर रहे ऐसे लोगों पुलिस ने सिर्फ खानापूर्ति के लिए गिरफ्तार कर लिया जबकि होना ये चाहिए था कि उन्हें गिरफ्तार कर उन्हें कठोर सजा देनी चाहिए थी. यदि इस तरह गुंडागर्दी करने वालों पर कड़ी नहीं की गई तो उनके हौसले लगातार बड़ते ही जायेंगे और शहर में भाई बहनों का भी एक साथ घूमना खतरनाक हो जायेगा. क्योंकि कौन किस परिस्थिति में कहाँ जा रहा है कहाँ बैठा है इससे उन तथाकथित लोगों को कुछ नहीं  करना है.जो साल के केवल चंद दिन संस्कृति की रक्षा का दिखावा करते है. यदि इन तथाकथित कार्यकर्ताओं को संस्कृति का इतना ही ख्याल है तो नंगी फिल्मे क्यों बड़े चाव से देखते है? वो सड़कों पर राह चलती लड़कियों से छेड़खानी क्यों करते हैं? उन्हें इस तरह की हर गन्दी चीजों का विरोध पूरी मजबूती के साथ करना चाहिए. क्या इसके लिए उन्हें अलग से ट्रेनिंग देनी पड़ेगी? संस्कृति के नाम पर इस तरह की मनमानी करने वालो पर कड़ी करवाई करने की जरुरत है

Wednesday, May 19, 2010

नक्सली हैं या आतंकी?

नक्सली हैं या आतंकी?




40 साल, 20 राज्य और हजारों वारदात



एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं बल्कि पूरे चालीस साल हो चुकें हैं नक्सल समस्या को देश में पांव जमाए। इतने लंबे समय में नक्सलियों ने अपना नेटवर्क इतना मजबूत कर लिया है कि वो आज देश के 20 राज्यों में अपनी सामानान्तर सरकार चला रहे हैं। नक्सली कौन है? कहां से आते हैं? क्या खाते हैं? कहां रहते हैं? उन तक घातक हथियार और जरूरतों के सामान कैसे पहुंचते हैं, यह ना तो राज्य सरकार को पता है और ना ही केन्द्र सरकार को? कई बार मुठभेड़ हो जाने और लगातार सर्चिंग के बाद भी आज तक पुलिस इनकी पहचान तक नहीं कर पाई है।

जानकारों की माने तो छत्तीसगढ़ में नक्सलियों का कोई भी बड़ा नेता नहीं है। लेकिन छत्तीसगढ़ राज्य में ही नक्सली अपनी जड़े काफी मजबूत कर चुुके हैं। दूसरे राज्यों के नक्सली नेता छत्तीसगढ़ में आकर इतनी सफाई से कई बड़ी घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं। शांत, सुकुन व धान का कटोरा कहा जाने वाला राज्य छत्तीसगढ़ आज लाल आतंक से पस्त हो चुका है। खनिज संपदा से भरपूर व सीधा-साधा प्रदेश अब देश भर में सिर्फ नक्सली आतंक के लिए ही जाना जाताा है। कभी सिर्फ बस्तर के जंगलों और दंतेवाड़ा, बीजापुर तक सक्रिय रहने व छुट-पुट घटनाओं को अंजाम देने वाले नक्सली अब प्रदेश के लगभग सभी जंगली क्षेत्रों में पहुंच चुके हैं। चाहे वह महानदी का उद्गम स्थल सिहावा नगरी हो या चाहे हीरा उगलने वाला मैनपुर गरियाबंद हो, सभी स्थानों पर नक्सली अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। इन स्थानों पर ना सिर्फ नक्सलियों की अवाजाही है बल्कि अब वहां पर वे अपना ठिकाना भी बना चुके हैं। मोटे तौर पर कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि राज्य का पूरा जंगल नक्सलियों के कब्जे में है। जंगलों में अपनी हुकूमत स्थापित कर लेने के बाद नक्सली अब धीरे-धीरे शहरों में पांव जमा रहे हैं।



रायपुर, दुर्ग, भिलाई, नांदगांव, महासमुंद आदि शहरों में नक्सलियों के अरबन नेटवर्क का खुलासा शहरी पुलिस द्वारा कई बार किया जा चुका है लेकिन एक बार जो हाथ लग गया उसके बाद पुलिस ना तो फालोअप करती है ना ही उसे कुछ हासिल होता है। इतना नेटवर्क मिलने के बाद भी हमारी पुलिस द्वारा कोई बड़ी कामयाबी हासिल नहीं कर पाना सबसे बड़ा चिंता का विषय है।



कहा जाए तो असीमित संसाधन और तमाम प्रकार की सुविधाओं के बाद भी हम हर मामले में नक्सलियों से पीछे हैं। नक्सलियों से निपटने के लिए सिर्फ गोली-बंदूकें ही काफी नहीं हैं। इस बात के उल्लेख करने के कई कारण हैं जैसे नक्सलियों का खुफिया तंत्र हमारे जवानों के खुफिया तंत्र से अधिक मजबूत है। ऐसा नहीं है कि उनके पास हमारे जवानों से ज्यादा घातक हथियार हैं लेकिन जिस तरह की भौगौलिक परिस्थिति में रहकर नक्सलियों ने अपने आप को तैयार कर लिया है वह उनका सबसे बड़ा हथियार है।



जंगली क्षेत्र के जानकारों की माने तो नक्सलियों से निबटने के लिए जितनी भी कंपनियां, उन क्षेत्रों में भेजी जाती हैं उन्हें वहां का जरा भी ज्ञान नहीं रहता। अनजान जगहों पर खतरनाक नक्सलियों से लडऩा अंधे कुंए में जाने से कम नहीं है। यदि कंपनी या बटालियनों के जवान भौगौलिक परिस्थिति में ढल भी जाएं तो समस्या वहां आती है कि उनके दुश्मन की पहचान क्या है? क्योंकि आज तक नक्सलियों की कोई वास्तविक पहचान नही हैं ? कोई पहचान नहीं होने का फायदा ही ये अब तक उठाते आए हैं और कोई भी बड़ी वारदात आसानी से करके फरार हो जाते हंै। जानकारों के मुताबिक नक्सली,आदिवासी क्षेत्रों मेेंं सामान्य नागरिक की तरह ही रहते हैं और जब किसी घटना को अंजाम देना हो तभी ये वर्दी धारण कर जंगलों मेें सक्रिय हो जाते हैं।



बताते है कि रानी बोदली में हुए 55 जवानों की हत्या के बाद यह बात सामने आई थी कि नक्सली ग्रामीण के वेश में किसी विवाह समारोह में शामिल होने आए थे और वहां उन्होंने सीआरपीएफ के जवानों से दोस्ती बना ली थी। कुछ दिनों तक जवानों के साथ लगातार बैठकर शराब का सेवन करते रहे और जिस रात यह घटना हुई कैम्प के सारे जवान शराब के नशे में थे। इसी तरह की एक अन्य घटना में थानेदार हेमंत मंडावी सहित 12 जवान नक्सलियों का शिकार बने थे। धमतरी जिले के रिसगांव में भी सर्चिंग पर निकले 11 जवानों को नक्सलियों ने इसी तरह मारा था। ग्रामीणों के वेश में अपनी पहचान छुपाने में नक्सली बड़ी आसानी से कामयाब हो जाते हैं।



आंकड़ों के मुताबिक छत्तीसगढ़ का लगभग 40 हजार वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र नक्सलियों के कब्जे में है। इसमें से करीब 13 हजार वर्ग किमी क्षेत्र में नक्सलियों का भारी दबदबा है। जानकारी के मुताबिक दंतेवाड़ा के कोंटा ब्लाक के चिंतलनार, चिंतागुफा, जुगरगुंडा, कांकेरलंका, बीजापुर के उसुर तरैम, पुजारी कांकेर, तारलागुड़ा, नारायणपुर जिले के अबूझमाड व बस्तर के मरदायाले व मारडूम में आजादी के इतने सालों बाद भी प्रशासन नहीं बल्कि नक्सलियों की तूती बोलती है। जानकार बताते हैं कि इस क्षेत्र के 35 लाख की आबादी में लगभग 12 लाख लोगों पर नक्सलियों की हुकूमत चलती है। नक्सलियों के खिलाफ चल रहे अभियान के लिए बीएसएफ, आईटीबीपी, सीआरपीएफ, छत्तीसगढ़ सशस्त्र बल तथा जिला पुलिस के लगभग 24 हजार से भी अधिक जवान तैनात हैं। जबकि पुलिस सूत्रों के मुताबिक लगभग 40-50 हजार सशस्त्र नक्सली इस क्षेत्र में हैं जिनमें करीब 15 हजार महिला नक्सली हैं, इनमें से 10 हजार नक्सली सैन्य प्रशिक्षण प्राप्त हंै। इतनी बड़ी संख्या में जंगलों में मौजूद नक्सलियों ने कभी अपनी पहचान सार्वजनिक नहीं की है। यही वजह है कि वे लगातार पुलिस व प्रशासन पर हावी हो रहे हैं।

पहले 10, फिर 20, 30, 55, और अब 77। नक्सलियों द्वारा मारे जा रहे जवानों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। हाल ही में 6 अपै्रल को दंतेवाड़ा के ताड़मेटला में हुआ नक्सली हमला देश का अब तक का सबसे बड़ा नक्सली हमला है। इस हमले से देश के गृहमंत्री पी. चिंदबरम खुद इतने व्यथित हो गए कि उन्होंने अपना त्याग पत्र प्रधानमंत्री के पास भेज दिया। भले ही उनका त्याग पत्र मंजूर नहीं किया गया हो पर इससे एक बात तो साफ है कि नक्सल समस्या वर्तमान में देश में आतंकवाद से बड़ी समस्या बन गई है। यदि छत्तीसगढ़ में नक्सलियों का प्रभाव इसी तरह बढ़ता रहा तो आने वाले कुछ वर्षों में पूरे प्रदेश में कश्मीर जैसे हालात पैदा हो सकते हैं।

बताते हैं कि छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश, बिहार, झारखंड, कर्नाटक, म.प्र., उ.प्र., उड़ीसा, उत्तरांचल व पश्चिम बंगाल में लाल आतंक का साया बहुत अधिक है। आंकड़ों की माने तो देश के 180 जिलों में नक्सलियों का जबरदस्त आतंक है इसके अलावा 40 जिले ऐसे है जहां पर ये किसी ना किसी रूप में सक्रिय हैं। जबकि छत्तीसगढ़ को ये अब अपना गढ़ बना चुके हैं। विभागीय जानकारी के मुताबिक देश के वन क्षेत्रफल का 1/5 वां हिस्सा नक्सलियों के कब्जे में है।



जहां गरीबी वहां नक्सली



नक्सलियों को अपनी जड़े मजबूत करने में बस्तर की भौगौलिक स्थिति ने जितना साथ दिया इससे कहीं ज्यादा उन्हे वहां की गरीब जनता का समर्थन है। बताते हैं कि नक्सलियों की प्रत्येक गांव के लोगों तक सीधी पहुंच है। वे लगभग प्रत्येक गांव में जाकर मीटिंग करते हैं,इस मीटिंग की खास बात यह होती है कि उसमें प्रत्येक घर से एक व्यक्ति को शामिल होना अनिवार्य है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो वह परिवार नक्सलियों की क्रूरता का शिकार हो जाता है। बताते हैं कि उस मीटिंग में वो लोगों के साथ न्याय करने का ढकोसला भी करते हैं। और अपने आप को उन ग्रामीणों का सबसे बड़ा हितैषी भी बताते हैं। नक्सलियों ने ग्रामीणों के दिलो-दिमाग पर अपना वर्चस्व हासिल कर लिया है। ये काम नक्सलियों ने एक दिन में हासिल नहीं किया बल्कि धीरे-धीरे सरकार के प्रति गरीबों के मन में नफरत पैदा कर उन्हें यह समझाते गए कि सरकार तुम्हारे लिए कुछ नहीं करेगी। सरकार ने ना तो पहले तुम्हारी मदद की है ना ही अब मदद करेगी। यदि तुम अपना विकास चाहते हो तो हमारा साथ दो। उनकी भाषा और बोली में बात कर नक्सलियों ने ग्रामीणों के दिलों में अपनी जगह बना ली है। आदिवासी व गरीब क्षेत्र के लोग सरकारी मदद लेते जरूर हैं पर दिल से वे नक्सलियों से जुड़े रहते हैं। यही कारण है कि किसी भी कार्रवाई की पूर्व सूचना नक्सलियों तक पहुंच जाती है।



सरकार से सीधी लड़ाई



विशेषज्ञों की माने तो माओवादी राज्य व केन्द्र सरकार के खिलाफ सीधी लड़ाई लड़ रहे हैं। हाल में हुए नक्सली हमने ने केन्द्र सरकार के समक्ष आंतरिक सुरक्षा और नक्सलवाद ग्रस्त इलाकों के विकास की बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है। सरकार को देश की आंतरिक सुरक्षा के खिलाफ नासूर बन चुके नक्सलवाद से निपटने के लिए बेहतर रणनीति तैयार करने की जरूरत है। राजनेताओं को आपसी कलह और मतभेद भुलाकर इस मसले पर एकजुट होकर प्लांिनंग करनी चाहिए जिससे मजबूती के साथ इस समस्या से निपटने का जोश पैदा हो।

पशुपति से तिरूपति तक रेड कारिडोर बनाने के मंसूबे लेकर उतरे नक्सलियों का नरसंहार ऐसा ही चलता रहा तो बहुत जल्द वो इसमें कामयाब हो सकते हैं।



विकास विरोधी और आतंकी

माओवादी वर्तमान में विकास के सबसे बड़े विरोधी हैं। वे आदिवासी क्षेत्रों में गांवों तक ना तो सड़क बनने दे रहे हैं और ना ही वहां बने सरकारी स्कूल भवनों व अस्पतालों को सुरक्षित रहने दें रहे हैं। ऐसी कई घटनाएं सामने आ चुकी हैं जिससे नक्सलियों ने सड़क निर्माण में लगे वाहनों को आग के हवाले कर दिया तो कहीं स्कूल व अस्पताल भवनों को बारूद से उड़ा दिया। नक्सली आतंक का पर्याय बन चुके हैं। उनका काम अब सिर्फ दहशत फैलाना और हत्या करना ही रह गया है। आंकड़े बताते है कि नक्सलियों ने पिछले पांच सालों में 248 शासकीय भवनों को विस्फोट से उड़ाया है। जिनमें 74 स्कूल भवन, 29 आश्रम शालाएं, 15 आंगनबाड़ी केन्द्र व 128 अन्य शासकीय भवनें शामिल हैं। इसी तरह शासन प्रशासन ग्रामीण आदिवासियों तक ना पहुंच सके इसलिए लगभग 72 सड़के नक्सलियों ने खोद डाली है, इसके अलावा 135 बिजली टॉवर भी वे अब तक उड़ा चुके है। सरकारी आंकड़ों की माने तो नक्सलियों ने अब तक 3700 करोड़ रूपये से अधिक की संपत्ति का नुकसान पहुंचाया है।



जिला पुलिस और जवानों के बीच तालमेल का अभाव



हर हमले के बाद यह बात प्रमुख रुप से सामने आती है कि जो जवान सर्चिंग पर निकले थे उन्हें उस रास्ते की जानकारी नहीं थी, या फिर उन्हें सूचना सहीं नहीं मिली थी। जाहिर बिना जानकारी के कोई भी कुछ नहीं कर सकता। इसके लिए जरुरी है कि जिला पुलिस और वहां के स्थानीय निवासी जिन्हें एसपीओ बनाया गया है उनकी मदद सर्चिंग या नक्सली गतिविधियों से निपटने के लिए लेनी चाहिए। क्योंकि उन्हें वहां की भौगोलिक परिस्थितियों का ज्ञान होने के साथ-साथ नक्सलियों के संबंध में पुख्ता जानकारियां भी मिलती रहती हैं। जब तक बटालियनों और कंपनियों के तथा जिला पुलिस के आला अफसर आपस में तालमेल नहीं बिठाएंगे तक तक नक्सलियों से मुकाबला कर पाना असंभव है। इसके लिए पुलिस अफसरों को विशेष रुप से पहल करनी चाहिए तथा आपसी तालमेल के साथ ही किसी भी सूचना पर गतिविधी को अंजाम देने के लिए तैयारी की जानी चाहिए।



ऐसे कर सकते हैं मुकाबला

नक्सलियों का मुकाबला करने में गोली-बंदूक सहायक हो सकते है लेकिन जब तक नक्सलियों का मनोबल नहीं तोड़ा जाएगा तब तक हम उनका आसानी से मुकाबला नहीं कर सकते। नक्सलियों का मनोबल तोडऩे के लिए उन तक पहुंचने वाली तमाम चीजों को रोकना होगा जिनके सहारे वे जंगल में भी बड़े आराम से रह रहे हैं। भले ही नक्सली क्षेत्र में या जंगल में हमारी सूचना तंत्र कमजोर हो लेकिन यदि जंगल के बाहर मैदानी क्षेत्रों में ही हम अपने सूचना तंत्र को मजबूत कर लें और जिन रास्तों, जिन माध्यमों और जिन लोगों द्वारा नक्सलियों तक खाने-पीने, पहनने ओढऩे से लेकर हथियार तक, पहुंचाने का काम किया जा रहा है यदि इसकी पुख्ता सूचना मिल जाए और उनको जब्त करने या पकडऩे में पुलिस को कामयाबी हासिल हो जाए तो नक्सलियों से आधी लड़ाई ऐसे ही जीत जाएंगे। ऐसा नहीं है कि इसकी जानकारी पुलिस को नहीं मिलती होगी? मिलती जरूर होगी सूचनाएं लेकिन उस पर गंभीरता से अमल नहीं किया जाता। ऐसे कई उदाहरण हंै जिसमें पुलिस कोई बड़ी कामयाबी हासिल नहीं कर पाई जैसे रायपुर के सुंदरनगर में लगभग दो साल पहले हथियारों से भरी कार बरामद की गई थी, लेकिन उसकी असलियत क्या थी स्पष्ट नहीं हो पाई। इसी तरह जशपुर में पिछले साल विस्फोटकों से भरा एक पूरा ट्रक जब्त किया गया था लेकिन उसकी भी सच्चाई सामने नहीं आ पाई थी। सरकार और पुलिस तथा कंपनी तथा बटालियनों के जवानों को इस मामले पर गंभीरता दिखाने की जरूरत है क्योंकि इस नेटवर्क को तोडऩे में सफल होने के बाद ही नक्सलियों का मनोबल तोड़ा जा सकता है।