Wednesday, December 23, 2009

प्रकृति की अनुपम कृति गंगरेल


प्रकृति की अनुपम कृति गंगरेल

जल ही जीवन है- जल से ही जीवन है, जल है तो सब कुछ है, जल नहीं तो कुछ भी नहीं- जल बिन सब सून। प्रकृति के हर चरण में जल से परिपूर्ण दृश्य-सदृश्य सौन्दर्य बोध कराते हैं, और खासकर जहां पहाडिय़ों से घिरा दूर-दूर तक पानी ही पानी नजर आये तो फिर क्या कहने वहीं का मंजर हर मौसम में सुकून भरा होता है। चंचल जल और ठहरा हुआ धीमा हलचल कल। कल हर तरह से प्रकृति के चितेरों को तृप्त करता है। आज हम छत्तीसगढ़ के सबसे बड़े बांध गंगरेल के ऊपर खड़े हैं- यहां का नजरा मीलों तक पानी भरा अत्यंत सुंदर मधुर नमी स्पर्शमय है। गंगरेल बॉंध 2 किलोमीटर में एक फलांग कम 1830 मीटर लंबा है। इसके 14 विशाल रेडियल गेट (टेन्टर गेट) हैं, जो घूमते हुए खुलते हैं, सामान्य स्थिति में यहां 27 टीएमसी (टन मिलियन क्यूबिक मीटर) जल मौजूद रहता है। यहां से नीचे जाने पर गैलेरी में गंगरेल डेम रविशंकर सागर परियोजना का सबसे प्रमुख आकर्षण है ,यह एक सुरंग है, जो डेम के निचले हिस्से में लगभग 1 किलोमीटर लंबी है। इसका उद्देश्य अंदर का निरीक्षण व रिसाव पर नजर रखना भी है, लेकिन यहां आकर एक आश्चर्य अनुभूति की यात्रा चरम सीमा पर आना स्वाभाविक हो जाती है। यहां एक सुंदर लिफ्ट गार्डन है जहां डेम के ऊपर से लिफ्ट से आने की भी व्यवस्था है। यहां 10 मेगावाट विद्युत उत्पादन का कार्य प्रगति पर है। यहां बोटिंग और वाटर गेम्स तथा पर्यटन की प्रचूर संभावनाओं की भरमार है। डेम की मछलियां भी यहां प्रसिद्घ हैं। अब हम है अंगार मोती देवी के मंदिर की ओर पहुंचते हैं। यह गंगरेल डेम से लगा हुआ अत्यंत प्रसिद्घ है। दीपावली के बाद के शुक्रवार में यहां मड़ई (मेला) लगता है, इस अंचल के नामी नाचा पार्टी इस मेले के खास आकर्षण होते हैं। यहीं गंगरेल कॉलोनी है जो गंगरेल के कर्मचारियों का निवास है। गंगरेल से 4 कि.मी. दूर खूबचंद बघेल बराज (छोटा डेम पुलिया) है जहां मुख्य नहरों को सिंचाई के लिए दिशा दी गई है। इसका दृश्य सुंदर है। यहां से 40 किमी दूरी पर मुरूमसिली (माडम) डेम ब्रिटिश गवर्नमेन्ट का बनाया साइफन स्पील व ऑटोमेटिक पद्घति का दर्शनीय है। हमारा अगला पड़ाव धमतरी है। राष्ट्रीय राजमार्ग 43 पर धमतरी छोटा किंतु नामी शहर है। यहां प्रदेश का पहली नगर पालिका है जहां कचरे से खाद तैयार किया जाता है। धान की पैदावार का सबसे महत्वपूर्ण जगह धमतरी। बिलाईमाता मंदिर यहां का सबसे बड़ा एवं महत्वपूर्ण है। धमतरी और रायपुर के बीच चलने वाली नेरो गेज छोटी रेल लाइन की रेलगाड़ी बड़ी सुंदर है। इसकी कम रफ्तार व समतल क्षेत्र से गुजरते हुए दृश्य को कैमरे में कैद करना न भूलें। दूरी- राष्ट्रीय राजमार्ग 43 पर धमतरी, रायपुर से 77 कि.मी. दूर तथा गंगरेल धमतरी से 11 किमी पर स्थित है। रायपुर से धमतरी तक के लिए छोटी लाइन रेल सेवा भी उपलब्ध है।
पड़ाव- धमतरी में सभी प्रकार की ठहरने व खाने की सुविधा है। बेहतर सुविधा के लिये रायपुर रूकना अच्छा रहता है। चल चित्र में जल चित्र का अति महत्व स्थान है। इसका रूपांकन यहां बेहतरीन तरीके से किया जा सकता है।

Sunday, December 20, 2009

छत्तीसगढ़ का इतिहास



छत्तीसगढ़
छत्तीसगढ़ भारत का एक राज्य है। छत्तीसगढ़ राज्य का गठन १ नवंबर २००० को हुआ था। यह भारत का २६वां राज्य है । भारत में दो क्षेत्र ऐसे हैं जिनका नाम विशेष कारणों से बदल गया - एक तो 'मगध' जो बौद्ध विहारों की अधिकता के कारण "बिहार" बन गया और दूसरा 'दक्षिण कौशल' जो छत्तीस गढ़ों को अपने में समाहित रखने के कारण "छत्तीसगढ़" बन गया। किन्तु ये दोनों ही क्षेत्र अत्यन्त प्राचीन काल से ही भारत को गौरवान्वित करते रहे हैं। "छत्तीसगढ़" तो वैदिक और पौराणिक काल से ही विभिन्न संस्कृतियों के विकास का केन्द्र रहा है। यहाँ के प्राचीन मन्दिर तथा उनके भग्नावशेष इंगित करते हैं कि यहाँ पर वैष्णव, शैव, शाक्त, बौद्ध के साथ ही अनेकों आर्य तथा अनार्य संस्कृतियों का विभिन्न कालों में प्रभाव रहा है।
छत्तीसगढ़ के उत्तर और उत्तर-पश्चिम में मध्यप्रदेश का रीवां संभाग, उत्तर-पूर्व में उड़ीसा और बिहार, दक्षिण में आंध्र प्रदेश और पश्चिम में महाराष्ट्र राज्य स्थित हैं। यह प्रदेश ऊँची नीची पर्वत श्रेणियों से घिरा हुआ घने जंगलों वाला राज्य है। यहाँ साल, सागौन, साजा और बीजा और बाँस के वृक्षों की अधिकता है। छत्तीसगढ़ क्षेत्र के बीच में महानदी और उसकी सहायक नदियाँ एक विशाल और उपजाऊ मैदान का निर्माण करती हैं, जो लगभग 80 कि.मी. चौड़ा और 322 कि.मी. लम्बा है। समुद्र सतह से यह मैदान करीब 300 मीटर ऊँचा है। इस मैदान के पश्चिम में महानदी तथा शिवनाथ का दोआब है। इस मैदानी क्षेत्र के भीतर हैं रायपुर, दुर्ग और बिलासपुर जिले के दक्षिणी भाग। धान की भरपूर पैदावार के कारण इसे धान का कटोरा भी कहा जाता है। मैदानी क्षेत्र के उत्तर में है मैकल पर्वत शृंखला। सरगुजा की उच्चतम भूमि ईशान कोण में है । पूर्व में उड़ीसा की छोटी-बड़ी पहाड़ियाँ हैं और आग्नेय में सिहावा के पर्वत शृंग है। दक्षिण में बस्तर भी गिरि-मालाओं से भरा हुआ है। छत्तीसगढ़ के तीन प्राकृतिक खण्ड हैं : उत्तर में सतपुड़ा, मध्य में महानदी और उसकी सहायक नदियों का मैदानी क्षेत्र और दक्षिण में बस्तर का पठार। राज्य की प्रमुख नदियाँ हैं - महानदी, शिवनाथ, खारुन, पैरी , तथा इंद्रावती नदी[
छत्तीसगढ़ का इतिहास
मुख्य लेख: रामायणकालीन छत्तीसगढ़
छत्तीसगढ़ प्राचीनकाल के दक्षिण कोशल का एक हिस्सा है और इसका इतिहास पौराणिक काल तक पीछे की ओर चला जाता है। पौराणिक काल का 'कोशल' प्रदेश, कालान्तर में 'उत्तर कोशल' और 'दक्षिण कोशल' नाम से दो भागों में विभक्त हो गया था इसी का 'दक्षिण कोशल' वर्तमान छत्तीसगढ़ कहलाता है। इस क्षेत्र के महानदी (जिसका नाम उस काल में 'चित्रोत्पला' था) का मत्स्य पुराण[क], महाभारत[ख] के भीष्म पर्व तथा ब्रह्म पुराण[ग] के भारतवर्ष वर्णन प्रकरण में उल्लेख है। वाल्मीकि रामायण में भी छत्तीसगढ़ के बीहड़ वनों तथा महानदी का स्पष्ट विवरण है। स्थित सिहावा पर्वत के आश्रम में निवास करने वाले श्रृंगी ऋषि ने ही अयोध्या में राजा दशरथ के यहाँ पुत्र्येष्टि यज्ञ करवाया था जिससे कि तीनों भाइयों सहित भगवान श्री राम का पृथ्वी पर अवतार हुआ। राम के काल में यहाँ के वनों में ऋषि-मुनि-तपस्वी आश्रम बना कर निवास करते थे और अपने वनवास की अवधि में राम यहाँ आये थे।
इतिहास में इसके प्राचीनतम उल्लेख सन 639 ई० में प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्मवेनसांग के यात्रा विवरण में मिलते हैं। उनकी यात्रा विवरण में लिखा है कि दक्षिण-कौसल की राजधानी सिरपुर थी। बौद्ध धर्म की महायान शाखा के संस्थापक बोधिसत्व नागार्जुन का आश्रम सिरपुर (श्रीपुर) में ही था। इस समय छत्तीसगढ़ पर सातवाहन वंश की एक शाखा का शासन था। महाकवि कालिदास का जन्म भी छत्तीसगढ़ में हुआ माना जाता है। प्राचीन काल में दक्षिण-कौसल के नाम से प्रसिद्ध इस प्रदेश में मौर्यों, सातवाहनों, वकाटकों, गुप्तों, राजर्षितुल्य कुल, शरभपुरीय वंशों, सोमवंशियों, नल वंशियों, कलचुरियों का शासन था। छत्तीसगढ़ में क्षेत्रीय राजवंशो का शासन भी कई जगहों पर मौजूद था। क्षेत्रिय राजवंशों में प्रमुख थे: बस्तर के नल और नाग वंश, कांकेर के सोमवंशी और कवर्धा के फणि-नाग वंशी। बिलासपुर जिले के पास स्थित कवर्धा रियासत में चौरा नाम का एक मंदिर है जिसे लोग मंडवा-महल भी कहा जाता है। इस मंदिर में सन् 1349 ई. का एक शिलालेख है जिसमें नाग वंश के राजाओं की वंशावली दी गयी है। नाग वंश के राजा रामचन्द्र ने यह लेख खुदवाया था। इस वंश के प्रथम राजा अहिराज कहे जाते हैं। भोरमदेव के क्षेत्र पर इस नागवंश का राजत्व 14 वीं सदी तक कायम रहा।१०

साहित्य
छत्तीसगढ़ साहित्यिक परम्परा के परिप्रेक्ष्य में अति समृद्ध प्रदेश है। इस जनपद का लेखन हिन्दी साहित्य के सुनहरे पृष्ठों को पुरातन समय से सजाता-संवारता रहा है। श्री प्यारेलाल गुप्त अपनी पुस्तक "प्राचीन छत्तीसगढ़" में बड़े ही रोचकता से लिखते है। [२] छत्तीसगढ़ी और अवधी दोनों का जन्म अर्धमागधी के गर्भ से आज से लगभग 1080 वर्ष पूर्व नवीं-दसवीं शताब्दी में हुआ था।"[३]
भाषा साहित्य पर और साहित्य भाषा पर अवलंबित होते है। इसीलिये भाषा और साहित्य साथ-साथ पनपते है। परन्तु हम देखते है कि छत्तीसगढ़ी लिखित साहित्य के विकास अतीत में स्पष्ट रुप में नहीं हुई है। अनेक लेखकों का मत है कि इसका कारण यह है कि अतीत में यहाँ के लेखकों ने संस्कृत भाषा को लेखन का माध्यम बनाया और छत्तीसगढ़ी के प्रति ज़रा उदासीन रहे।इसीलिए छत्तीसगढ़ी भाषा में जो साहित्य रचा गया, वह करीब एक हज़ार साल से हुआ है।
अनेक साहित्यको ने इस एक हजार वर्ष को इस प्रकार विभाजित किया है :
छत्तीसगढ़ी गाथा युग:सन् 1000 से 1500 ई. तक
छत्तीसगढ़ी भक्ति युग - मध्य काल,सन् 1500 से 1900 ई. तक
छत्तीसगढ़ी आधुनिक युग: सन् 1900 से आज तक
ये विभाजन साहित्यिक प्रवृत्तियों के अनुसार किया गया है यद्यपि प्यारेलाल गुप्त जी का कहना ठीक है कि - " साहित्य का प्रवाह अखण्डित और अव्याहत होता है।" [४]
यह विभाजन किसी प्रवृत्ति की सापेक्षिक अधिकता को देखकर किया गया है।एक और उल्लेखनीय बत यह है कि दूसरे आर्यभाषाओं के जैसे छत्तीसगढ़ी में भी मध्ययुग तक सिर्फ पद्यात्मक रचनाएँ हुई है।
संस्कृति
आदिवासी कला काफी पुरानी है । हिंदी लगभग सभी जगह बोली जाती है पर मूल भाषा छत्तीसगढ़ीहै।
लोकगीत और लोकनृत्य
छत्तीसगढ़ के गीत दिल को छु लेती है यहाँ की संस्कृति में गीत एवं नृत्य का बहुत महत्व है। इसीलिये यहाँ के लोगों में सुरीलीपन है। हर व्यक्ति थोड़े बहुत गा ही लेते है। और सुर एवं ताल में माहिर होते ही है।
यहां के गीतों में से कुछ हैं:
के
लोकगीत
भोजलीपंडवानीजस गीतभरथरी लोकगाथा • बाँस गीतगऊरा गऊरी गीतसुआ गीतछत्तीसगढ़ी प्रेम गीतदेवार गीतकरमाछत्तीसगढ़ी संस्कार के iit
छत्तीसगढ़ के लोकगीत में विविधता है, गीत अपने आकार में छोटे और गेय होते है। गीतों का प्राणतत्व है भाव प्रवणता। छत्तीसगढ़ी लोकभाषा में गीतों की अविछिन्न परम्परा है।छत्तीसगढ़ के प्रमुख और लोकप्रिय गीतों है - सुआगीत, ददरिया, करमा, डण्डा, फाग, चनौनी, बाँस गीत, राउत गीत, पंथी गीत।
सुआ, करमा, डण्डा, पंथी गीत नृत्य के साथ गाये जाते है। सुआ गीत करुण गीत है जहां नारी सुअना (तोता) की तरह बंधी हुई है। गोंड जाति की नारियाँ दीपावली के अवसर पर आंगन के बीच में पिंजरे में बंद हुआ सुआ को प्रतीक बनाकर (मिट्टी का तोता) उसकेचारो ओर गोलाकार वृत्त में नाचती गाती जाती हैं। इसालिए अगले जन्म में नारी जीवन पुन न मिलने ऐसी कामना करती है।
राऊत गीत दिपावली के समय गोवर्धन पूजा के दिन राऊत जाति के द्वारा गाया जाने वाला गीत है। यह वीर-रस से युक्त पौरुष प्रधान गीत है जिसमें लाठियो द्वारा युद्ध करते हुए गीत गाया जाता है। इसमें तुरंत दोहे बनाए जातें हैं और गोलाकार वत्त में धूमते हुए लाठी से युद्ध का अभ्यास करते है। सारे प्रसंग व नाम पौराणिक से लेकर तत्कालीन सामजिक / राजनीतिक विसंगतियों पर कटाक्ष करते हुए पौरुष प्रदर्शन करते है।